aahsaso ka dard. ✨

बीते कुछ समय से मैंने कुछ भी नहीं लिखा है। मेरी स्मृतियों में बसने वाले सभी बिम्ब धुँधले पड़ चुके हैं। मानो भीतर किसी की याद ही न बची हो। लिखते-लिखते अक्सर ऐसा लगने लगता है मानो इतना लिख लिया हो कि अब लिखने को कुछ बचा ही न हो।

लिखने वालों का दिल पत्थर हो चुका होता है। लिखते-लिखते, वे एक ही उदासी को हज़ारों बार जीते चले जाते हैं। उनके जीवन की त्रासदियाँ, वे रोज़ लिखते हैं। साथ, साथ उन त्रासदियों को जीते भी हैं। ऐसे में दिल पत्थर करना पड़ता होगा, ये मान लेना चाहिए।

मेरे हाथों में आजकल बहुत दर्द भी रहता है। पड़े-पड़े शायद बेकार होते जा रहे हैं। नसों में शब्द जमते जा रहे हैं, मानो। ये शब्द कलम या कीबोर्ड के रास्ते बाहर आने को उतावले हैं लेकिन एक अजीब से सैडिस्टिक माइंडसेट के साथ जी रही हूँ मैं। शायद, खुद को ख़त्म करने की हिम्मत नहीं है मुझमें, इसीलिए अपने अंदर के उस इंसान को खत्म कर रही हूँ जो मेरे दर्द, मेरी उदासी को लिख सकता है।

दुनिया ज़्यादा देख नहीं पाती है। दुनिया का दस्तूर है, जो दिखता है वही समझ में आता है। न मैं अपना दर्द लिखूँगी, न उसे कोई पढ़ेगा और न उसका कोई अस्तित्व बचेगा।

लिखना एक बड़ी टॉक्सिक आदत भी होती है। बार-बार अपने पुराने घावों में उँगली डालकर दर्द खींचता है इंसान, जिसे उड़ेल सके पन्ने पर।

जो नहीं लिखते, उनके दर्द खामोशी में ही दम तोड़ देते हैं शायद!

लिखने वाला हर इंसान अश्वत्थामा होता है। वह हर किसी का दर्द आत्मसात कर लेता है। उन पापों का बोझ भी अपने कंधे पर उठाता है जो उसने कभी किए ही नहीं।

हमारे कंधे हरदम झुके रहते हैं। उदासी का कोई कारण समझ नहीं आता। लगता है जैसे कोई श्राप है जिसका बोझ ढोना है, ताउम्र। उम्र खत्म होने का नाम नहीं लेती। मर जाने के बाद भी हमारे शब्द चीखते रहते हैं। हमारा दर्द ज़िंदा रहता है। सच मायने में, हम कभी मरते ही नहीं है। हमेशा अपने लिखे में ही कहीं, दर-ब-दर की ठोकरें खाते हुए भटकते रहते हैं।

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