मोक्ष 🫀✨
मोक्ष
मशरूफ रहा एक रोज़
कहने को कुछ ना रहने को
ना सुनने को ना सुनाने को
बस थी एक झलक दिखाने को
मेरा चेहरा वो उदासी से भरा
झुरियो की चादर ओढ़े हुए
जिसमे मे खुद को भी ना देख पाता
जिसमें फक्त बस वक्त का गुजरना और
बर्बाद होना दिखाई पड़ता था जैसे
एक अरसे से ज़िंदगी किसी
कैद में गुजारी हो आज़ाद रहते हुए भी
जैसे किसी अपने के पास रहा हो
हमेशा उससे जुदा रहते हुए भी
किसी मंदिर/मस्जिद में रहा हो बिना हाथ जोड़े हुए
जब जवानी निकली तो आजादी मिली
ऐसी आजादी जिसमे ना चलना मुनासिब
ना ठहराना ना कुछ कहना मुनासिब ना कह पाना
दुत्कारी हुई ज़िंदगी ज्यादा अच्छी रहे उससे
जिसको मरते ना मरते हुए ऐसी ज़िंदगी मिले
बचपन से जवानी, जवानी से रवानी के इस सफर में
बस सफर ही मेरा रहा ना अपना कोई दिखा
ना गैर ने हाथ बढ़ाया एक उम्र गुजारी इस सफर में
मंजिल मिलते मिलते मंजिल की ख्वाहिश ही अधूरी रह गई
अब तो ये सफर ही सुहाना लगने लगता था
ना किसी की फिक्र ना किसी का जिक्र
चला पड़ा तो बड़ी दूर चला
नहीं तो बैठा, उठा और फिर चला
यही रीत रही जिंदगी की बस चलते जाना था
मुसाफिर बनना आसान नहीं कही
दूर निकलना पड़ा था कही बड़ी दूर से
अपने के बीच रहते हुए गैरो से हाथ मिलाया
जिंदगी ने कभी कभी ऐसा मंजर भी दिखलाया
खैर गैरो ने भी अपने होने का एहसास दिलाया
वक्त आने पर पीछाड़ फिर साथ छोड़ कर भगाया
एक उम्मीद अब खुद से रखी
एक उम्मीद से अब खुद चला
इस बार ना रुका ना ठहरा
बस चला, बस चला और बस चलता रहा
ना मंजिल की फिक्र रही ना सही गलत रास्ते की
ज़िंदगी जीना था बस जीता चला गया।
एक रोज मुड़ कर देखा खुदको
मुड़ना भी ना मुनासिब हुआ
बिना शोर बिना आवाज के
एक काफ़िला साथ ले चला
अपने, बैगाने, सब थे दिखते उसमे
जिसमे मेरा एक काफिला रहा
इस बार टांग खींचते, साथ छोड़ते, वक्त दिखाते नहीं
इस बार रोते हुए, सिसकाते हुए
अपना एक अलग सा दुख लेकर
जिसमे अपने होने की खुशी तो नही
पर गैर होने का गम भी नहीं था
बस चार लोग थे कुछ लकड़ियां उठाए
सब थे अपना दुख दिखाते कोई कुछ ना कहता
मैं इसमें खुदको देखता पर पीछे तो काफिला रहा
ना मैं आगे रहा ना पीछे मुझे तो बस खुदको ढूंढना था
बड़ी मुश्किल से मिला मैं खुद को
देखा तो मैं अपनी मंजिल पर पहुंच रहा था लकड़ी के गट्टो पर लिटाए हुए।
समझ में ना आया कुछ ना समझना चाह रहा था
बस चल रहा था बस चले जा रहा था बस चलते जा रहा था।
yash kashav ✨🫀
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thanks god blas you